गीता प्रेस, गोरखपुर >> सती सुकला सती सुकलाश्रीरामनाथ
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प्रस्तुत है सती सुकला......
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
ॐ
निवेदन
भारतवर्ष सतियों और पतिव्रताओं की पुण्यभूमि है। यहाँ महान् पतिव्रताएँ हो
गयी हैं, उन्हीं में से सती सुकला एक हैं। पति की अनुपस्थिति में इनकी
बड़ी कड़ी-कड़ी परीक्षाएं हुईं, परंतु ये अपने पातिव्रत्य के बल से सभी
में सफलतापूर्वक उत्तीर्ण हो गयीं।
इस इतिहास से एक शिक्षा यह मिलती है कि पुरुष यदि पतिव्रता पत्नी का परित्याग करके किसी धर्म-कार्य में प्रवृत्त होता है तो उसे सफलता नहीं मिलती। देवता नाराज होते हैं, पितरों की दुर्गति होती है। अतएव पत्नी को साथ लेकर ही तीर्थयात्रादि धर्म-कार्य करने चाहिये।
इस छोटी-सी पुस्तिका से हमारे भाई-बहिन लाभ उठावें, यही निवेदन है।
इस इतिहास से एक शिक्षा यह मिलती है कि पुरुष यदि पतिव्रता पत्नी का परित्याग करके किसी धर्म-कार्य में प्रवृत्त होता है तो उसे सफलता नहीं मिलती। देवता नाराज होते हैं, पितरों की दुर्गति होती है। अतएव पत्नी को साथ लेकर ही तीर्थयात्रादि धर्म-कार्य करने चाहिये।
इस छोटी-सी पुस्तिका से हमारे भाई-बहिन लाभ उठावें, यही निवेदन है।
विनीत –
प्रकाशक
प्रकाशक
।।श्रीहरिः।।
सती सुकला
कृकलकी तीर्थयात्रा और सुकला से सखियों की बातचीत
आज जब हमारा जीवन अन्धकार से भर गया है और जब हमारी सभ्यता और
संस्कृति एक बहुत ही संकटापन्नावस्था से गुजर रही है; जब घर-घर में कलह,
प्रमाद और अशान्ति है; जब प्रत्येक वर्ण अपने धर्म से, कर्तव्य और
जिम्मेदारी दूर हट गया है, तब निराशा के इस अँधेरे में डूब-से रहे दिल के
सामने प्राचीन काल की एक ज्योति-परम्परा रह-रहकर मानो चमक उठती हैं। मेरा
तात्पर्य यहाँ उन सतियों से है, जिन्होंने अपने त्याग से नारीत्व को
सभ्यता के उच्च आसन पर बैठाया है- वे सतियाँ जो हजारों वर्षों
के
बाद भी मानों एक जीवित, अक्षय प्रकाश –पुञ्जकी तरह हमारे
आत्मविस्मृत, मूर्च्छित जीवन के चारों ओर घूम रही हैं। आज के इस युग में
जब श्रद्धा का स्थान कुतर्क ने छीन लिया है, जब अन्तः सद्गुणों का पवित्र
स्थान बाहरी टीमटाम और शेखियों ने ले लिया है, जब अपनी वञ्चनाओं में
व्यक्ति और समाज भूले हुए हैं, तब हमें यह विचार करना है कि किसको लेकर
हमारी प्राणधारा बनी है, क्या उन नारियों को लेकर नहीं, जिन्होंने अपने
अक्षय दान से अन्नपूर्णा और लक्ष्मीकी भाँति मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ
परम्परा को जीवित रखा, जिन्होंने अपनी तपस्या और कष्ट-सहन के द्वारा
मानवता को मातृत्व के अमृत से सींचा और जिन्होंने मनुष्य के पशुत्व का
परिस्कार करके उसमें देवत्व की स्थापना की ?’
मैं मानता हूँ कि आज अब नारी के गौरव पर प्रश्न-चिन्ह लागाने का समय आया है, तब आज की आधुनिक सभ्यता के शत-शत प्रलोभनों के बीच चलनेवाली माताएं, बहिनें, बेटियाँ उन प्राचीन सतियों के जीवन से न केवल रास्ता पा सकती हैं, बल्कि जीवन के अन्धकारमय कण्टकपूर्ण मार्गपर चलने के लिये प्रकाश और बल भी प्राप्त कर सकती हैं।
और तब यह अच्छा होगा कि आज मैं अपनी बहिनों को पुराने जमाने की एक पवित्र कथा सुना दूँ। मुझे विश्वास है इससे उनका कल्याण होगा।
बहुत दिन हुए, पुण्यधाम काशी में एक वैश्य रहते थे। उनका नाम कृकल था। वे धर्मज्ञ, ज्ञानी, गुणवान, शास्त्र तथा धर्मग्रन्थों में श्रद्धा रखनेवाले थे। उन्हीं की भांति उनकी पत्नी सुकला भी सर्वसद्गुणसम्पन्ना थी। वह साध्वी पतिभक्ता, सत्यवादिनी, धर्माचारपरायणा थी। एक बार की बात है कि गुरुजनों के मुँह से तीर्थयात्रा का माहात्म्य और उससे मिलने वाले पुण्यफलों की कथा सुनकर कृकल ने तीर्थयात्रा का निश्चय किया। जब वे चलने लगे तो पतिव्रता सुकलाने कहा,-‘स्वामी ! मैं आपकी सहधर्मिणी हूँ। जिस मार्ग से आप जायँ, उसी का अनुगमन मुझे करना चाहिये। आपकी पूजा ही मेरा धर्म है। इसलिए मैं भी आपके साथ चलूंगी- आपकी सेवा करते हुए आपकी छाया में रहकर धर्माचरण करूँगी। पातिव्रत्य ही स्त्रीका धर्म है, इसी से उसकी सद्गति होती है। स्त्री के लिए पति ही सुख है, पति ही स्वर्ग है, पति ही मोक्ष है। उसके लिये पति सर्वतीर्थमय है। यज्ञ की दीक्षा लेनेवाले पुरुष को यज्ञानुष्ठान से जो पुण्य प्राप्त होता है, वहीं पुण्य साध्वी स्त्री अपने पति की पूजा से तत्काल प्राप्त कर लेती हैं।*’ प्रियतम ! मैं आपका आश्रम छोड़कर यहाँ न रहूँगी; आपके साथ चलूँगी।’
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मैं मानता हूँ कि आज अब नारी के गौरव पर प्रश्न-चिन्ह लागाने का समय आया है, तब आज की आधुनिक सभ्यता के शत-शत प्रलोभनों के बीच चलनेवाली माताएं, बहिनें, बेटियाँ उन प्राचीन सतियों के जीवन से न केवल रास्ता पा सकती हैं, बल्कि जीवन के अन्धकारमय कण्टकपूर्ण मार्गपर चलने के लिये प्रकाश और बल भी प्राप्त कर सकती हैं।
और तब यह अच्छा होगा कि आज मैं अपनी बहिनों को पुराने जमाने की एक पवित्र कथा सुना दूँ। मुझे विश्वास है इससे उनका कल्याण होगा।
बहुत दिन हुए, पुण्यधाम काशी में एक वैश्य रहते थे। उनका नाम कृकल था। वे धर्मज्ञ, ज्ञानी, गुणवान, शास्त्र तथा धर्मग्रन्थों में श्रद्धा रखनेवाले थे। उन्हीं की भांति उनकी पत्नी सुकला भी सर्वसद्गुणसम्पन्ना थी। वह साध्वी पतिभक्ता, सत्यवादिनी, धर्माचारपरायणा थी। एक बार की बात है कि गुरुजनों के मुँह से तीर्थयात्रा का माहात्म्य और उससे मिलने वाले पुण्यफलों की कथा सुनकर कृकल ने तीर्थयात्रा का निश्चय किया। जब वे चलने लगे तो पतिव्रता सुकलाने कहा,-‘स्वामी ! मैं आपकी सहधर्मिणी हूँ। जिस मार्ग से आप जायँ, उसी का अनुगमन मुझे करना चाहिये। आपकी पूजा ही मेरा धर्म है। इसलिए मैं भी आपके साथ चलूंगी- आपकी सेवा करते हुए आपकी छाया में रहकर धर्माचरण करूँगी। पातिव्रत्य ही स्त्रीका धर्म है, इसी से उसकी सद्गति होती है। स्त्री के लिए पति ही सुख है, पति ही स्वर्ग है, पति ही मोक्ष है। उसके लिये पति सर्वतीर्थमय है। यज्ञ की दीक्षा लेनेवाले पुरुष को यज्ञानुष्ठान से जो पुण्य प्राप्त होता है, वहीं पुण्य साध्वी स्त्री अपने पति की पूजा से तत्काल प्राप्त कर लेती हैं।*’ प्रियतम ! मैं आपका आश्रम छोड़कर यहाँ न रहूँगी; आपके साथ चलूँगी।’
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*सर्वतीर्थसमो भर्त्ता सर्वधर्ममयः पतिः।
मखानां यजनात् पुण्यं यद् वै भवति दीक्षिते।
तत् पुण्यं समवाप्नोति भर्तुश्चैव हि साम्प्रतम ।।
मखानां यजनात् पुण्यं यद् वै भवति दीक्षिते।
तत् पुण्यं समवाप्नोति भर्तुश्चैव हि साम्प्रतम ।।
(पद्म० भूमि० 41 । 14 -15)
कृकल जानते थे कि तीर्थयात्रा कितनी कठिन होती है, इसलिए पत्नी के रूप,
रंग, वयस्, कोमलताका विचार बार-बार उनके मनमें आने लगा। वे सोचने लगे कि
‘सर्दी, धूप, आँधी, पानी, कठिन कँकरीले और कँटीले मार्ग के कारण
इसका बुरा हाल हो जायगा। सोने-सा चमकने वाला इसका मुख फीका हो जाएगा-रूप
नष्ट हो जाएगा, पाँवों में छाले प़ड़ जाएँगे, भूख-प्यास से यह निर्जीव-सी
हो जायगी। इसी से मेरा जीवन और मेरा धर्म है, इसका नाश होने से मेरा
सर्वनाश हो जायगा। यही मेरी जीविका है; यही मेरी प्राणेश्वरी है। इस
स्थिति मैं कैसे इसे तीर्थयात्रा में साथ ले जा सकता हूं। नहीं मुझे अकेले
ही जाना चाहिये- इसे नहीं ले जाना चाहिये।’
पति को विचारमग्न देख सुकला समझ गयी कि इनके मन में क्या भावनाएँ आ रही है और क्यों इन्हें हिचकिचाहट हो रही है। तब उसने हाथ जोड़कर पति से कहा- ‘प्राणप्रिय ! निर्दोष नारी का त्याग करना पति का कर्तव्य नहीं है। पत्नी ही पुरुष का धर्ममूल है ! इसलिये आप मुझे अवश्य साथ ले चलिये।’
परंतु कृकल ने उसकी बात न मानी। ऊपर से तो वे उसे आश्वासन देते और कहते रहे कि मैं तुमको ले चलूँगा, पर मनमें उन्होंने निश्चय कर लिया था कि ‘इसके भलेके लिये ही इसको साथ ले चलना ठीक न होगा।’
जब सुकला पति की बातों से संतुष्ट होकर घर के दूसरे कामों में लग गयीं, तब उपयुक्त समय पाकर कृकल अपने साथियों के साथ चुपके से रवाना हो गये। जब देवार्चनका समय हुआ सुकला ने खोजने पर भी घर में कहीं पति को न देखा, तब वह व्याकुल होकर रोने लगी। उसने इधर-उधर लोगों से पता लगाया तो मालूम हुआ कि पतिदेव तीर्थयात्रा कों चले गये हैं। पति के इस प्रकार चले जाने और अपने को साथ न ले जाने से उसे बड़ा दुःख हुआ। बहुत देर तक कमरे में बैठकर रोती रही। अन्त में जब मन का बोझ हलका हुआ, तब उसने निश्चय किया कि ‘जबतक मेरे पति लौटकर घर नहीं आयेंगे, तबतक मैं पृथ्वी पर सोऊँगी; घी, तैल, दही और दूध नहीं खाऊँगी; नमक, पान, गुड़ इत्यादि समस्त स्वाद उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का त्याग करूँगी तथा कभी एक समय खाकर, कभी पूरी तरह निराहार रहकर ही समय बिताऊँगी।’
उसने अपने निश्चय के अनुसार श्रृंगार की भावनातकका त्याग कर दिया। वह कभी खाती, कभी न खाती। जमीन पर पड़ी रहती और सदैव पति के ध्यान में मग्न रहती। उसने सुन्दर वस्त्र त्याग दिये और बहुत साधारण, आकर्षणहीन वस्त्र धारण कर लिये। धीरे-धीरे पति-वियोग के दुख से और एकाहार, अनाहार तथा जीवन की अनेक सुविधा छोड़ देने से उसका शरीर पीला पड़ गया। वह बिल्कुल दुबली हो गयी। कभी रोती, कभी हाहाकार करती। रोते रहने से उसे अनिद्रा रोग हो गया। खाने-पीने की उसे रुचि ही न होती थी।
उसकी यह हालत देखकर उसकी सहेलियाँ बड़ी चिन्तित हुई। वे उसके पास आयी और प्रेम से पूछने लगी कि ‘तुमने अपना क्या हाल कर रखा है ? क्यों तुम इतनी दुःखी हो ?’ सुकलाने कहा- ‘धर्मात्मा पति मुझे छो़डकर तीर्थयात्रा करने चले गये है। मैं पापरहित हूँ, निर्दोष हूँ। स्वामी ने मुझे छोड़ दिया है। सखियो ! मैं इसी दुःख से सदा दुःखित रहती हूँ। पतिद्वारा छोड़े जानेसे तो प्राण-त्याग करना भी अच्छा है। मुझसे अब यह दारुण वियोग सहा नहीं जाता।’
पति को विचारमग्न देख सुकला समझ गयी कि इनके मन में क्या भावनाएँ आ रही है और क्यों इन्हें हिचकिचाहट हो रही है। तब उसने हाथ जोड़कर पति से कहा- ‘प्राणप्रिय ! निर्दोष नारी का त्याग करना पति का कर्तव्य नहीं है। पत्नी ही पुरुष का धर्ममूल है ! इसलिये आप मुझे अवश्य साथ ले चलिये।’
परंतु कृकल ने उसकी बात न मानी। ऊपर से तो वे उसे आश्वासन देते और कहते रहे कि मैं तुमको ले चलूँगा, पर मनमें उन्होंने निश्चय कर लिया था कि ‘इसके भलेके लिये ही इसको साथ ले चलना ठीक न होगा।’
जब सुकला पति की बातों से संतुष्ट होकर घर के दूसरे कामों में लग गयीं, तब उपयुक्त समय पाकर कृकल अपने साथियों के साथ चुपके से रवाना हो गये। जब देवार्चनका समय हुआ सुकला ने खोजने पर भी घर में कहीं पति को न देखा, तब वह व्याकुल होकर रोने लगी। उसने इधर-उधर लोगों से पता लगाया तो मालूम हुआ कि पतिदेव तीर्थयात्रा कों चले गये हैं। पति के इस प्रकार चले जाने और अपने को साथ न ले जाने से उसे बड़ा दुःख हुआ। बहुत देर तक कमरे में बैठकर रोती रही। अन्त में जब मन का बोझ हलका हुआ, तब उसने निश्चय किया कि ‘जबतक मेरे पति लौटकर घर नहीं आयेंगे, तबतक मैं पृथ्वी पर सोऊँगी; घी, तैल, दही और दूध नहीं खाऊँगी; नमक, पान, गुड़ इत्यादि समस्त स्वाद उत्पन्न करने वाली वस्तुओं का त्याग करूँगी तथा कभी एक समय खाकर, कभी पूरी तरह निराहार रहकर ही समय बिताऊँगी।’
उसने अपने निश्चय के अनुसार श्रृंगार की भावनातकका त्याग कर दिया। वह कभी खाती, कभी न खाती। जमीन पर पड़ी रहती और सदैव पति के ध्यान में मग्न रहती। उसने सुन्दर वस्त्र त्याग दिये और बहुत साधारण, आकर्षणहीन वस्त्र धारण कर लिये। धीरे-धीरे पति-वियोग के दुख से और एकाहार, अनाहार तथा जीवन की अनेक सुविधा छोड़ देने से उसका शरीर पीला पड़ गया। वह बिल्कुल दुबली हो गयी। कभी रोती, कभी हाहाकार करती। रोते रहने से उसे अनिद्रा रोग हो गया। खाने-पीने की उसे रुचि ही न होती थी।
उसकी यह हालत देखकर उसकी सहेलियाँ बड़ी चिन्तित हुई। वे उसके पास आयी और प्रेम से पूछने लगी कि ‘तुमने अपना क्या हाल कर रखा है ? क्यों तुम इतनी दुःखी हो ?’ सुकलाने कहा- ‘धर्मात्मा पति मुझे छो़डकर तीर्थयात्रा करने चले गये है। मैं पापरहित हूँ, निर्दोष हूँ। स्वामी ने मुझे छोड़ दिया है। सखियो ! मैं इसी दुःख से सदा दुःखित रहती हूँ। पतिद्वारा छोड़े जानेसे तो प्राण-त्याग करना भी अच्छा है। मुझसे अब यह दारुण वियोग सहा नहीं जाता।’
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विनामूल्य पूर्वावलोकन
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